‘सोऽहं’ का अर्थ है- ‘मैं वह हूँ’ ‘ॐ’ अर्थात् ‘आत्मा’। ‘वह’ अर्थात् ‘परमात्मा’। ‘सोऽहम्’ शब्द में आत्मा और परमात्मा का समन्वय है, साथ ही शरीर और प्राण का भी। ‘सोऽहम्-साधना’ जितनी सरल है, बन्धन रहित है, उतनी ही महत्वपूर्ण भी है। उच्चस्तरीय साधनाओं में ‘सोऽहम्-साधना’ को सर्वोपरि माना गया है, क्योंकि उसके साथ जो संकल्प जुड़ा हुआ है, वह चेतना को उच्चतम स्तर तक जाग्रत कर देने में, जीव और ब्रह्म को एकाकार कर देने में विशेष रुप से समर्थ है। इतनी इस स्तर की भाव संवेदना और किसी साधना में नहीं है। अस्तु, इसे सामान्य साधनाओं की पंक्ति में न रखकर स्वतंत्र नाम दिया गया है। इसे ‘हंसयोग’ भी कहा गया है। जीवात्मा सहज स्वभाव में सोऽहम् का जाप श्वाँस-प्रश्वाँस किया के साथ-साथ अनायास ही करता रहता है, यह संख्या चौबीस घण्टे में 21600 के लगभग हो जाती है। गोरक्ष-संहिता के अनुसार यह जीव ‘हकार’ की ध्वनि से बाहर आता है, और ‘सकार’ की ध्वनि से भीतर जाता है। इस प्रकार वह सदा हंस-हंस जाप करता रहता है। इस तरह एक दिन-रात में जीव इक्कीस हजार छः सौ मन्त्र का जाप करता रहता है। संस्कृत व्याकरण के आधार पर ‘सोऽहम्’ का संक्षिप्त रुप ‘ओऽम्’ हो जाता है। सोऽहम् पद में से सकार और हकार का लोप करके शेष का सन्धि योजन करने से वह प्रणव (ॐकार) रूप हो जाता है।
‘सोऽहम्’ साधना गायत्री की योग-साधना है। यह साधना व्यक्ति के श्वास लेते-निकालते समय स्वतः होती रहती है। श्वास बाहर निकालते समय ‘हकार’ की ध्वनि और भीतर ग्रहण करते समय ‘सकार’ की ध्वनि होती है, विद्वान लोग इसी को ‘सोऽहम्’ साधना कहते है।
इस साधना की दूसरी प्रेरणा जीवात्मा और ब्रह्म कि तथा आत्मा और परमात्मा की तात्त्विक एकता का भी प्रतिपादन करती है। ‘सो’ अर्थात् ‘वह’। अहम् अर्थात् मैं। इन दोनों का मिला-जुला निष्कर्ष निकला- वह मैं हूँ। वह अर्थात् परमात्मा, मैं अर्थात् ‘जीवात्मा’ दोनो का समन्वय-एकीभाव-सोऽहम्। इससे आत्मा और परमात्मा एक है- इस अद्वैत सिद्धान्त का समर्थन होता है। ‘तत्त्वमसि’, अयमात्मा ब्रह्म, शिवोऽहम्, सच्चिदानन्दोऽहम्- जैसे वाक्यों में इसी का प्रतिपादन हैं।
‘सोऽहम् साधना’ को ‘अजपा-जप’ अथवा प्राण-गायत्री भी कहा गया है। इसको अजपा-जाप इसलिए कहा गया है, क्योंकि यह जाप अपने आप होता रहता है। इसको जपने की नहीं बल्कि सुनने की आवश्यक्ता है। साथ ही इसको प्राण-गायत्री इसलिए कहा गया है क्योंकि यह जाप प्रत्येक श्वांस के साथ स्वतः ही होता रहता है।
अजपा गायत्री योगियों को मोक्ष प्रदान करने वाली है। उसका विज्ञान जानने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। इसके समान और कोई विद्या नहीं है। इसके बराबर और कोई पुण्य न भूतकाल में हुआ है न भविष्य में ही होगा।
सोऽहम् को सद्ज्ञान, तत्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान कहा गया है। इसमें आत्मा को अपनी वास्तविक स्थिति समझने, अनुभव करने का संकेत है। ‘वह परमात्मा मैं ही हूँ’, इस तत्त्वज्ञान में मायामुक्ति स्थिति की शर्त जुड़ी हुई है। नर-किट, नर-पशु और नर-पिशाच जैसी निकृष्ट परिस्थितियों में घिरी ‘अहंता’ के लिए इस पुनीत शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। ऐसे तो रावण, कंस, हिरण्यकश्यप जैसे अहंकारग्रस्त आतताई लोगों के मुख से अपने को ईश्वर कहलाने के लिए बाधित करते थे। अहंकार-उन्मत मनःस्थिति में वे अपने को वैसा समझते भी थे, पर इससे बना क्या? उनका अहंकार ही उन्हें ले डूबा।
‘सोऽहम्’ साधना में पंचतत्वों और तीन गुणों से बने शरीर को ईश्वर मानने के लिए नहीं कहा गया है। ऐसी मान्यता तो उल्टा अहंकार जगा देगी और उत्थान के स्थान पर पतन का नया कारण बनेगी, यह दिव्य संकेत आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन है। वह वस्तुतः ईश्वर का अंश हैं। समुद्र और लहरों की, सूर्य और किरणों की मटाकाश और घटाकाश की, ब्रह्माण्ड और पिण्ड की, आग-चिंगारी की उपमा देकर परमात्मा और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करते हुए मनीषियों ने यही कहा है कि मल-आवरण विक्षेपों से, कषाय-कल्मषों से मुक्त हुआ जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है।दोनों की एकता में व्यवधान मात्र अज्ञान का है, यह अज्ञान ही अहंता के रूप में विकसित होता है और संकीर्ण स्वार्थपरता में निमग्न होकर व्यर्थ चिन्तन तथा अनर्थ कार्य में निरत रहकर अपनी दुर्गति अपने आप बनाता है।
तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म, शिवोहम् सच्चिदानन्दोहम्, शुद्धोसि, बुद्धोसि, निरंजनोसि
जैसे वाक्यों में इसी दर्शन का प्रतिपादन है, उनमें जीव और ब्रह्म की तात्विक एकता का प्रतिपादन है।
सोऽहम् शब्द का निरन्तर जाप करने से उसका एक शब्द चक्र बन जाता है, जो उलट कर ‘हंस’ के समान प्रतिध्वनित होता है। योग-रसायन में कहा गया है, हंसो-हंसो इस पुनरावर्तित क्रम से जप करते रहने पर शीघ्र ही ‘सोहं-सोहं’ ऐसा जाप होने लगता है। अभ्यास के अनन्तर चलते, बैठते और सोते समय भी हंस-मंत्र का चिंतन परम् सिद्धिदायक है। इसे ही ‘हंस’, ‘हंसो’, ‘सोऽहम्’ मंत्र कहते है।
जब मन उस हंस तत्व में लीन हो जाता है, तो मन के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाता हैं और शक्ति रुप, ज्योती रुप, शुद्ध-बुद्ध, नित्य-निरंजन ब्रह्म का प्रकाश प्रकाशित होता है। समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर है, हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम रुद्र है, हंस ही परात्पर ब्रह्म है।
समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बन कर विद्यमान है।
सदा तन्मयतापूर्वक हंस मन्त्र का जप निर्मल प्रकाश का ध्यान करते हुए करना चाहिए।
जो अमृत से अभिसिंचन करते हुए ‘हंस’ तत्त्व का जाप करता है, उसे सिद्धियों और विभूतियों की प्राप्ति होती है।
जो ‘हंस’ तत्त्व की साधना करता है, वह त्रिदेव रुप है। सर्वव्यापी भगवान को जान ही लेता है।
शिव स्वरोदय के अनुसारः- श्वाँस के निकलने में ‘हकार’ और प्रविष्ट होने में ‘सकार’ जैसी ध्वनी होती है। ‘हकार’ शिवरुप और ‘सकार’ शक्ति रुप कहलाता है।
प्रसंग आता है कि एक बार पार्वती जी ने भगवान् शंकर से सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाले योग के विषय में पूछा, तो भगवान् शंकर ने इसका उत्तर देते हुए पार्वती जी से कहा- अजपा नाम की गायत्री योगियों को मोक्ष प्रदान करने वाली है। इसके संकल्प मात्र से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यह सुनकर पार्वती जी को इस विषय में और अधिक जानने की इच्छा हुई। इसके सम्पूर्ण विधि-विधान को जानना चाहा। तब भगवान शंकर ने पुनः कहा-हे देवी, यह देह (शरीर) ही देवालय है। जिसमें देव प्रतिमा स्वरुप जीव विद्यमान है। इसलिए अज्ञान रुपी निर्माल्य (पुराने फ़ूल-मालाओं) को त्याग कर ‘सोऽहम्’ भाव से उस (देव) की आराधना करनी चाहिए।
देवी भागवत के अनुसार- हंसयोग में सभी देवताओं का समावेश है, अर्थात् ब्रह्य, विष्णु, महेश, गणेशमय हंसयोग है। हंस ही गुरु है, हंस ही जीव-ब्रह्म अर्थात् आत्मा-परमात्मा है।
सोऽहम् साधना में आत्मबोध, तत्त्वबोध का मिश्रित समावेश है। मैं कौन हूँ? उत्तर- ‘परमात्मा’। इसे जीव और ईश्वर का मिलना, आत्म-दर्शन, ब्रह्म-दर्शन भी कह सकते है और आत्मा परमात्मा की एकता भी। यही ब्रह्म-ज्ञान है। ब्रह्म-ज्ञान के उदय होने पर ही आत्म-ज्ञान, सद्ज्ञान, तत्त्व-ज्ञान, व्यवहार-ज्ञान आदि सभी की शाखाएँ-प्रशाखाएँ फ़ूटने लगती है।
साँस खींचते समय ‘सो’ की, रोकते समय ‘अ’ की और निकालते समय ‘हम्’ की सूक्ष्म ध्वनि को सुनने का प्रयास करना ही ‘सोऽहम्’ साधना है। इसे किसी भी स्थिति में, किसी भी समय किया जा सकता है। जब भी अवकाश हो, उतनी ही देर इस अभ्यास क्रम को चलाया जा सकता है। यों शुद्ध शरीर, शान्त मन और एकान्त स्थान और कोलाहल रहित वातावरण में कोई भी साधना करने पर उसका प्रतिफ़ल अधिक श्रेयस्कर होता है, अधिक सफ़ल रहता है।
‘सोऽहम्’ साधना का चमत्कारी परिणाम भी अतुल है। यह प्राण-योग ‘सोऽहम्’ साधना का चमत्कारी परिणाम भी अतुल है। यह प्राण-योग की विशिष्ट साधना है।
दस प्रधान और चौवन(54) गौण, कुल चौंसठ(64) प्राणायामों का विधि-विधान साधना-विज्ञान के अन्तर्गत आता है। इनकें विविध लाभ हैं। इन सभी प्राणायामों में ‘सोऽहम्’ साधना रुपी प्राण-योग सर्वोपरि है। यह अजपा-गायत्री जप, प्राण-योग के अनेक साधना-विधानों में सर्वोच्च है। इस एक के ही द्वारा सभी प्रणायामों का लाभ प्राप्त हो सकता है।
सोऽहम् और कुण्डलिनी शक्ति
षटचक्र भेदन में प्राण्तत्त्व का ही उपयोग होता है। नासिका द्वारा प्राण तत्त्व में जाने पर आज्ञाचक्र तक तो एक ही ढंग से कार्य चलता है, पर पीछे उसके भावपरक तथा शक्तिपरक ये दो भाग हो जाते हैं। भावपरक हिस्से में फ़ेंफ़ड़े में पहुँचा हुआ प्राण शरीर के समस्त अंग-प्रत्यगों में समाविष्ट होकर सत् का संस्थापन और असत् का विस्थापन करता है। शक्तिपरक प्राणधारा आज्ञाचक्र से मस्तिष्क के पिछले हिस्से को स्पर्श करती हुई मेरूदण्ड में निकल जाती है, जहाँ ब्रह्मनाड़ी का महानाद है। इसी ब्रह्म-नाद में इड़ा-पिंगला दो विधुत धाराएँ प्रभावित हैं, जो मूलाधार चक्र तक जाकर सुषुम्ना-सम्मिलन के बाद लौट आती है। मेरूदण्ड स्थित ब्रह्मनाड़ी के इस महानाद में ही षटचक्र भँवर की तरह स्थित है। इन्हीं षटचक्रों में लोक-लोकान्तरों से सम्बन्ध जोड़ने वाली रहस्यमय कुन्जियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। जो जितने रत्न-भण्डारों से सम्बन्ध स्थापित कर ले, वह उतना ही महान।
कुण्डलिनी शक्ति भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों की आधारपीठ है। उसका जागरण षटचक्र भेदन द्वारा ही सम्भव है।चक्र-भेदन प्राणतत्त्व पर आधिपत्य के बिना सम्भव नहीं है। प्राणतत्त्व के नियन्त्रण में सहायक प्राणायामों में सोऽहम् का प्राणयोग सर्वश्रेष्ठ व सहज है।
सोऽहम् साधना द्वारा एक अन्य लाभ है- दिव्य गन्धों की अनुभूति। गन्ध वायु तत्त्व की तन्मात्रा है। इन तन्मात्रा द्वारा देवतत्त्वों की अनुभूति होती है। नासिका सोऽहम् साधना के समय गन्ध तन्मात्रा को विकसित करती है, परिणामस्वरूप दिक्गन्धों की अनायास अनुभूति समय-समय पर होती रहती है। इन गन्धों को कुतूहल या मनोविनोद की दृष्टि से नहीं लेना चाहिए। अपितु इनमें सन्निहित विभूतियों का उपयोग कर दिव्य शक्तियों की प्राप्ति का प्रयास किया जाना चाहिए। उपासना स्थल में धूपबती जलाकर, गुलदस्ता सजाकर, चन्दन, कपूर आदि के लेपन या इत्र-गुलाब जल के छिड़काव द्वारा सुगन्ध पैदा की जाती है और उपासना अवधि में उसी की अनुभूति गहरी होती चले तो साधना-स्थल से बाहर निकलने पर, बिना किसी गन्ध-उपकरण के भी दिक्गन्ध आती रहेगी। ऐसी दिक्गन्ध एकाग्रता की अभिरूचि का चिन्ह है। विभिन्न पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों में घ्राण-शक्ति का महत्व सर्वविदित है। उसी के सहारे वे रास्ता ढूँढ़ते है, शत्रु को भाँपते और सुरक्षा का प्रबन्ध करते, प्रणय-सहचर को आमंत्रित करते, भोजन की खोज करते तथा मौसम की जानकारी प्राप्त करते है। इसी घ्राण-शक्ति के आधार पर प्रशिक्षित कुत्ते अपराधियों को ढूँढ़ निकालते हैं। मनुष्य अपनी घ्राण-शक्ति को विकसित कर अतीन्द्रिय संकेतों तथा अविज्ञात गतिविधियों को समझ सकते हैं। दिव्य-शक्तियों से सम्बन्ध का भी गन्धानुभूति एक महत्वपूर्ण माध्यम है। सोऽहम् साधना इसी शक्ति को विकसित करती है।
सोऽहम् साधना विधान
साधना करते समय जब साँस भीतर जा रही हो तब ‘सो’ की भावना, भीतर रूक रही हो तब ‘अ’ का और जब उसे बाहर निकाला जा रहा हो तब ‘हम्’ ध्वनि का ध्यान करना चाहिए। इन शब्दों को मुख से बोलने की आवश्यकता नहीं है। मात्र श्वांस के आवागमन पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है और साथ ही यह भावना की जाती है कि आवागमन के साथ दोनों शब्दों की ध्वनि हो रही है।
आरम्भ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती, किन्तु प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है, वरन् आनन्द का अनुभव होता है।
ध्यान से मन का बिखराव दूर होता है और प्रकृति को एक केन्द्र पर केन्द्रित करने से उससे एक विशेष मानसिक शक्ति उत्पन्न होती है। उससे जिस भी प्रयोजन के लिए- जिस भी केन्द्र पर केन्द्रित किया जाये, उसमें जाग्रति- स्फुरणा उत्पन्न होती है। मस्तिष्कीय प्रसुप्त क्षमताओं को, षट्चक्रों को, तीन ग्रन्थियों को, जिस भी केंद्र पर केन्द्रित किया जाय वहीं सजग हो उठता है और उसके अन्तर्गत जिन सिद्धियों का समावेश है, उसमें तेजस्विता आती है।
सोऽहम् साधना के लिए किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। न समय का, न स्थान का। स्नान जैसा भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। जब भी अवकाश हो, सुविधा हो, भाग-दौड़ का काम न हो, मस्तिष्क चिन्ताओं से खाली हो। तभी इसे आरम्भ कर सकते है। यों हर उपासना के लिए स्वच्छता, नियत समय, स्थिर मन के नियम हैं। धूप-दीप से वातावरण को प्रसन्नतादायक बनाने की विधि है। वे अगर सुविधापूर्वक बन सकें तो श्रेष्ठ अन्यथा रात्रि को आँख खुलने पर बिस्तर पर लेटे-लेटे भी इसे किया जा सकता है। यों मेरूदण्ड को सीधा रखकर पद्मासन से बैठना हर साधना में उपयुक्त माना जाता है, पर इस साधना में उन सबका अनिवार्य प्रतिबन्ध नहीं है।
एकाग्रता के लिए हर साँस पर ध्यान और उससे भी गहराई में उतरकर सूक्ष्म ध्वनि का श्रवण इन दो प्रयोजनों के अतिरिक्त तीसरा भाव पक्ष है, जिसमें यह अनुभूति जुड़ी हुई है कि ‘मैं वह हूँ’ अर्थात् आत्मा, परमात्मा के साथ एकीभूत हो रही है। इसके निमित्त वह सच्चे मन से आत्म-समर्पण कर रही है। यह समर्पण इतना गहरा है कि, दोनों के मिलने से एक की सत्ता मिट जाती है और दूसरे की रह जाती है। दीपक जलता है तो लौ ही दृष्टिगोचर होती है। तेल तो नीचे पेंदे में पड़ा अपनी सत्ता बत्ती के माध्यम से प्रकाश रूप में ही समाप्त करता चला जाता है।