🌹*योनि-तंत्र की साधना 🌹
‘योनि-तंत्र’ की साधना वस्तुत: त्रिगुणात्मक आद्याशक्ति की ही उपासना है – योनि के ऊपरी भाग में कमल की पंखुड़ियों को सदृश भगोष्ठों के मध्य कमलासना लक्ष्मी, मध्य के गह्वर में महाकाली तथा मूल में स्थित गर्भनाल (कमलनाल) में सरस्वती की स्थिति कही गई है :
कार्तिकी कुंतलंरूपं योन्युपरि सुशोभितम् .
योनिमध्ये महाकाली छिद्ररूपा सुशोभना.
इसलिए ‘कामतंत्र’ में स्त्री/योनि की संतुष्टि ही सभी प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि और समृद्धि का आधार मानी गई है. यानी जिस घर में स्त्री असंतुष्ट-अतृप्त रहती है, वहाँ दु:ख, दरिद्रता, कलह और रोग-शोक आदि का साम्राज्य हो जाता है.
शास्त्रों ने उद्घोष किया है :
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता.
योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा.
रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा.
लिंग पूजा पूरे विश्व में होती है ,सभी बड़ी ख़ुशी से छू- छू कर करते हैं ,पर योनी पूजा के नाम पर नाक भौं सिकुड़ता है ,जबकि मूल उत्पत्ति कारक यही है. इसे मूर्खता और छुद्र मानसिकता नहीं तो और क्या कहेंगे. शिवलिंग हमें दिखता है, लेकिन यह नहीं दिखता की वह योनि में ही स्थापित है.
सम्भोग का अर्थ है सम+भोग यथा एक दसरे का बराबर भोग करना. स्त्री अतृप्त रह गई, पुरुष अपनी हवस मिटाकर हट गया तो यह संभोग नहीं शोषण और बलात्कार है.
भोग मात्र शारीरिक नहीं होता. भोग के कई स्वरुप है. भोग जिससे आनंद की अनुभूति हो जो किसी एक तरीके से बंधा नहीं है. शारीरिक सुख भी उसका ही स्वरुप है.
किसी भी शक्ति की पूर्ण संतुष्टि के लिए साधक को हर तरह से उसे प्रसन्न करने के लिए तत्पर होना चाहिए :
ॐभग-रूपा जगन्माता सृष्टि-स्थिति-लयान्विता.
दशविद्या – स्वरूपात्मा योनिर्मां पातु सर्वदा.
रमन्ते यस्मिन सुधियो नितान्तं देवर्षिगन्धर्वनरोगाद्याः.
तद्ब्रम्ह कत्कर्तृ तदेव कर्म तदेव वेद्यं कवयो वदन्ति.
यस्तिंतिनीस्पर्शतुपेत्य वेत्ति न संसृते कामपि हन्त चेष्टाम.
बुद्धिम तदा चेद्द्रवतीं विधाय स जातु मातुर्जठरं न याति.
जिस सम्भोग सुख में श्रेष्ठ बुद्धि वाले मनुष्य, देवर्षि, गंधर्व, नर, सर्प आदि नितांत रमण करते हैं, वह संभोग सुख (परमानन्द) ही ब्रम्ह है, वही कर्ता (करने वाला) है, वही कर्म है और वह जानने योग्य है।
जब पुरुष स्त्री के भग में स्थित तिन्तिनी तक अपने लिंग का स्पर्श करा देता है, उस समय स्त्री कामांध होकर पुरुष को बाँहों में कसकर जो सुख प्रदान करती है, उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता.
उस समय उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। साथ ही इससे स्त्री द्रवित भी हो जाती है, तो समझो कि पुरुष अमर हो गया। स्त्री उसे आँखों में बसाकर रखेगी.
ऐसा प्यार देगी कि जिसका वर्णन नही किया जा सकता। तब पूरे परिवार में सुख शांति भी रहेगी और सदैव कल्याण होता रहेगा। जहाँ पति से पत्नी और पत्नी से पति परम संतुष्ट रहते हैं वहाँ उस परिवार में निश्चित ही कल्याण होता है-
संतुष्टो भार्यया भर्ता, भर्ता भार्या तथैव च.
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्रवै ध्रुवम.
~मनु स्मृति.
यहाँ पहले पत्नी को संतुष्ट करने की बात कही गई है। अतः पहले पत्नी को संतुष्ट करना पति का धर्म है। और यह तभी संभव है जब पति संतुष्ट करने की काम-कला को जानेगा।
पुरुष तो संतुष्ट हो ही जाएगा। पर यदि पुरुष पहले ही संतुष्ट हो गया तो वह बेचारा हो गया। अतः स्त्री को पहले द्रवित करने की कला आनी चाहिए। नहीं तो वह बेचारी आहें भरती रहेगी। हर बार यदि ऐसा हुआ तो विवश होकर वह पर पुरुषापेक्षिणी हो ही जाएगी।
तब घर, घर नहीं श्मशान बन जाएगा। अतः आचार्य कहते हैं कि जो पुरुष भग के अंदर तिन्तिनी तक लिंग को पँहुचा देगा उसकी सारी इच्छा समाप्त हो जाएंगी और वह पुनः जन्म नही लेगा उसकी मुक्ति हो जाएगी। अर्थात जब स्त्री पूर्ण प्रसन्न हो जाएगी तो पुरुष को भरपूर सुख देगी ही, पूरी तरह खुश होकर परिवार चलाएगी.
तब पुरुष की सारी इच्छाएँ कामनाएँ पूर्ण हो जाएंगी। जब इसी जन्म में वह कामना मुक्त हो जाएगा। कोई इच्छा वासना कामना शेष अतृप्त नहीं रह जाएगी तब उसे दूसरा जन्म उन अधूरी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए क्यों लेना पड़ेगा?
पुनर्जन्म का यही कारण तो शास्त्र बताते हैं। यदि स्त्री पुरुष परमानन्द की अनुभूति संभोग सुख में करते हैं तो स्वतः वे मोक्ष को उपलब्ध हो गए.
संभोग की कला को यदि आपने साध लिया तो समझ लो सब सध गया। आप मुक्त हो गए। ध्यान दें- पहले धर्म, फिर अर्थ, फिर काम और काम अगर सिद्ध हो गया तो फिर कुछ नहीं सीधे मोक्ष।
सम्भोग से समाधि और मोक्ष :
कुंडलिनी साधना के दो मार्गों में से एक मार्ग तंत्र का और दूसरा योग का रहा है. योग शरीर को अनुकूल बना कुंडलिनी जागरण करता है जिसमे नियम -संयम -आहार -प्राणायाम और ध्यान मुख्य तत्व होते हैं तो योनितंत्र में शरीर की ऊर्जा ,भाव और कठोर नियंत्रण मुख्य तत्व हैं. योग सम्भोग से विरक्ति पर कुंडलिनी जागरण की बात करता है तो तंत्र सम्भोग से ही कुंडलिनी जागरण की बात करता है.
सम्भोग से समाधि तो बहुत छोटी अवस्था है. ध्यान-तंत्र तो सम्भोग से कुंडलिनी जागरण कर मोक्ष की बात करता है. सम्भोग से समाधि ,नाम का प्रचलन इसलिए अधिक हुआ की ओशो ने इस नाम से एक पुस्तक लिख दी. मूल स्रोत तो वैदिक दर्शन है.
सनातनी ध्यानतंत्र आधुनिक सेक्स से कई कदम आगे है. ध्यानी मोक्ष और शिव -शक्ति के सायुज्य की बात करते हैं. ओशो के अनुयायी दुराचारी बन गए, नामर्द से मर्द नहीं बने. ये आज भी सत्य से दूर है.
सम्भोग से समाधि ही नहीं शिव -शक्ति सायुज्य और मोक्ष भी मिलता है : यह वास्तविक तथ्य है. भले इसे न जानने वाले , न समझने वाले इसकी कितनी भी आलोचना करें.
यह विज्ञान भी उन्ही सूत्रों पर आधारित है जो विज्ञान ब्रह्मचर्य से ऊर्जा संरक्षण कर इश्वर प्राप्ति की बात करता है. भोग से मोक्ष प्राप्ति का ध्यान-तंत्र मार्ग हजारों -हजार वर्ष पुराना है. इसके अब तक कई प्रकार विकसित हो चुके हैं. भारतीय तंत्र से ही यह ज्ञान बौद्ध में और क्रमशः पूरी दुनियां में फैला. अब पश्चिम से तांत्रिक संभोग का वैज्ञानिक रिसर्च भी सामने आ रहा है.
भारत में यह गोपनीय साधना का सब्जेक्ट रहा और सामान्य सामाजिक संस्कार में इसे बताये जाने से परहेज किया जाता रहा क्योंकि ऋषियों का मानना था की इससे सामाजिक उश्रीन्खलता बढ़ सकती है.
यह गृहस्थ ऋषियों का गृहस्थ रहते हुए कुंडलिनी साधना का मार्ग रहा है जिससे वह आध्यात्मिक उन्नति भी करते रहें और गृहस्थ धर्म का भी पालन करते हुए सामाजिक विकास भी करते रहें. |यह साधना मार्ग पूर्णतया वैज्ञानिक सूत्रों के अनुसार ही चलता है जिसे ब्रह्मांडीय ऊर्जा विगान कहते हैं. भले आज का विज्ञान वहां पहुंचा हो या नहीं.
ध्यानतंत्र के एक मुख्य मार्ग कुंडलिनी जागरण में सम्भोग से समाधि की बात कही गयी है. यद्यपि अन्य रास्ते भी होते हैं ,किन्तु इस मार्ग की विशेषता यह है की यह वही कार्य कुछ ही समय में संपन्न कर सकता है जिसे अन्य मार्ग वषों में शायद कर पायें.
इसकी पद्धति पूर्ण वैज्ञानिक है और शारीरिक ऊर्जा को इसका माध्यम बनाया जाता है. धनात्मक और ऋणात्मक की आपसी शार्ट सर्किट से उत्पन्न अत्यंत तीब्र ऊर्जा को पतित होने से रोककर उसे उर्ध्वमुखी करके इस लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है. यद्यपि यह अत्यंत कठिन और खतरनाक मार्ग भी है जिसमे ऊर्जा न सँभालने पर पूरी सर्किट के ही भ्रष्ट होने का खतरा होता है : पर यह मार्ग वह उपलब्धियां कुछ ही समय में दे सकता है ,जिसे पाने में अन्य मार्गों से वर्षों समय लगता है और निश्चितता भी नहीं होती की मिलेगा ही.
यह मार्ग यद्यपि अत्यंत विवादास्पद रहा है किन्तु इसकी वैज्ञानिकता संदेह से परे है और सिद्धांत पूरी तरह प्रकृति के नियमो के अनुकूल है. तभी तो प्रकृति पर नियंत्रण का यह सबसे उत्कृष्ट माध्यम है ,और किसी न किसी रूप में अन्य माध्यमो में भी अपनाया जाता है.
सामान्य पूजा-अनुष्ठानो में भी ब्रह्मचर्य के पालन की हिदायत दी जाती है उसका भी वही उद्देश्य होता है की ऊर्जा संरक्षित करके उसे उर्ध्वमुखी किया जाए. योनितंत्र में अंतर बस इतना ही आता है की इस ऊर्जा को तीब्र से तीब्रतर करके रोका और उर्ध्वमुखी किया जाता है. इस हेतु प्रकृति की ऋणात्मक शक्ति को सहायक बनाया जाता है तीब्र ऊर्जा उत्पादन में.
सम्भोग और समाधि एक ही ऊर्जा के भिन्न तल हैं. निम्न तल यानी मूलाधार चक्र पर जब जीवन ऊर्जा की अभिव्यक्ति होती है तो यह सेक्स बन जाता है ,सम्भोग बन जाता है. उच्च तल पर समान उर्जा भगवत्ता बन जाती है जिसे समाधि कहा गया है. यौन ऊर्जा का अर्थ वीर्य मात्र से नही है.
वीर्य मात्र यौन ऊर्जा का भौतिक तल है. यौन ऊर्जा का वाहक है वीर्य. यौन ऊर्जा ऊपर गति करती है. इसका यह अर्थ नही है वीर्य ऊपर चढ़ जाता है. वीर्य के ऊपर चढने का कोई उपाय नही है. यह मनस ऊर्जा है ,ओज है और अदृश्य है.
ध्यान के माध्यम से स्पर्म डिस्चाजिंग की प्रक्रिया को कंट्रोल किया जाता है. संभोग के दौरान वीर्य को डिस्चार्ज होने से लम्बे समय तक, तीन घंटे तक भी रोका जा सकता है. यानि शीघ्रपतन पर पूर्ण लगाम. आप महज 15 दिन में हमारे चेतना मिशन से इस दिशा में पर्याप्त सफलता अर्जित कर सकते हैं.
हमारी रीढ़ की हड्डी में ३ सूक्ष्म नाड़िया हैं – इडा- पिंगला- सुषुम्ना. यह मनस उर्जा सुषुम्ना के द्वारा ऊपर का अभियान करती है. इसका सामना सात स्टेशनों से पड़ता है जिसे चक्र कहते हैं. और इस पूरी ऊर्जा की यात्रा को ‘कुण्डलिनी जागरण’ कहते हैं.
ध्यान और तंत्र की विधियों द्वारा इस ऊर्जा को ऊपर ले जाया जा सकता है| यह विधिया आज से हजारों वर्ष पूर्व विश्व के प्रथम गुरु और मूल शक्ति भगवान शिव ने पार्वती को कहीं थी जिसे ‘योनितन्त्र’ में संस्कृत में संकलित किया गया है. एक ही भौतिक शरीर के प्रत्येक चक्र से एक अलग आध्यात्मिक शरीर जुडा हुआ है और हर दूसरा शरीर विपरीत है.
अर्थात पुरुष का दूसरा शरीर स्त्री का है और स्त्री का दूसरा शरीर पुरुष का. इसीलिए स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक धैर्यवान होती हैं. उनका दूसरा शरीर पुरुष का है जो अपेक्षाकृत मजबूत है. अर्धनारीश्वर की प्रतिमा यही सन्देश देती है|
इस प्रकार प्रत्येक शरीर में ७ चक्रों से जुड़े ७ शरीर होते हैं. एक -एक चक्र के जागरण के साथ एक एक शरीर सक्रीय होने लगता है. शरीर परस्पर मिल जाते हैं. कुंडलीनी जागरण की यह प्रक्रिया ‘अंतर-मैथुन’ कही जाती है. एक स्त्री शरीर अपने ही पुरुष शरीर से संयुक्त हो जाती है, इसमें ऊर्जा नष्ट नही होती बल्कि ऊर्जा का एक अनन्य वर्तुल बन जाता है जो आध्यात्मिक जागरण और आंतरिक आनंद के रूप में परिलक्षित होता है. यही फ़िलासफी पुरुष के मामले में भी लागू होती है.
इस अंतर-मैथुन के अनेक दिव्य परिणाम होते हैं| बाहर के सेक्स से अनंत गुना आनंद और तृप्ति उपलब्ध होती है. प्रत्येक चक्र के जागरण और शरीरो के मिलन से आनंद का खजाना मिलने लगता है. बाहर सेक्स की इच्छा समाप्त हो जाती है. इसी को ब्रह्मचर्य कहते हैं.
व्यक्ति ब्रह्म जैसा हो जाता है. उसकी चर्या ब्रह्म जैसी हो जाती है. शिव लिंग का प्रतीक इसी अंतर सम्भोग को परिलक्षित करता है.
चक्रों के जगने के साथ उसके सम्बंधित सिद्धियाँ मिल जाती हैं- जैसे ह्रदय चक्र के जगने के साथ विराट करुना व प्रेम के आनंद का भान होने लगता है. आज्ञा चक्र के जगने के साथ व्यक्ति तीनो कालो को जानने वाला हो जाता है. विशुद्ध चक्र के जागने के साथ व्यक्ति जो बोले वह सत्य होने लगता है.
प्राचीन आशीर्वाद की कथाये उन्ही ऋषियों की क्षमताये हैं जिनका विशुद्ध चक्र सक्रीय हो गया था. सहस्रार चक्र आखिरी चक्र है जिसके सक्रीय होते ही व्यक्ति परम धन्यता को उपलब्ध हो जाता है. वह ब्रह्म ही हो जाता है- ‘अहम् ब्रह्मास्मि’.
उसके शक्ति के अंतर्गत समस्त सृष्टि की शक्तियां उसके पास आ जाती हैं लेकिन वह इनका उपयोग नही करता क्यूँ की उसे यह भी बोध हो जाता है की सृष्टि व इसके नियम उसी के द्वारा बनाये गये हैं.
परम ज्ञान की अवस्था को समाधि कहा गया है. समाधि का अर्थ है समाधान. इसकी अनुभूति चौथे शरीर से ही होने लगती है. चौथे शरीर से ही परमात्मा का ओमकार स्वरूप पकड़ में आने लगता है.
नर नारी यानि कपल का दैहिक संभोग अहम है. हम सामान्य सम्भोग की बात नहीं कर रहे. हम लक्ष्य विशेष की ओर केन्द्रित सम्भोग की बात कर रहे हैं. सम्भोग का अर्थ होता है सम अर्थात बराबर का आनंद भोग. जहाँ दो लोग बराबर संलिप्त हो भावावेग के साथ सम्बद्ध हो वही सम्भोग है. बिना प्रेमभावना जुड़े सम्भोग सम्भव नहीं और तब वह मात्र भोग होता है.
ध्यान-तंत्र में शरीर के सम्पर्क से अधिक मन और भावना का सम्पर्क महत्व रखता है. यहाँ मनुष्य की रतिभावना कम, ब्रह्म रति और आत्मिक रति की भावना अधिक महत्व रखती है. सामान्य सम्भोग से भी अत्यधिक ऊर्जा उत्पन्न होती है किन्तु जब आत्मिक या ब्रह्म रति की स्थिति में युगल आते हैं तो ऊर्जा की मात्रा इतनी अधिक बढती है की शरीर कम्पायमान होने लगता है और सुध बुध खोने लगता है.
जब एक स्वस्थ प्रेमी युगल संभोगरत होते हुए भी पतित नहीं होता तो उसकी ऊर्जा ओज में बदलकर उर्ध्वमुखी होने लगती है. यहाँ वीर्य और योनिरज अमृत समान होते हैं.
यौगिक रूप से संभोगरत अवस्था में वीर्य और रज का उत्पादन होता है सामान्य अवस्था से कई गुना अधिक होता है. इस उत्पादित वीर्य -रज को पतित नहीं होने दिया जाता. एक निश्चित अवस्था पर डिस्चार्जनेश रोककर इन्हें पतन तक आने नहीं दिया जाता. रोकने की निश्चित अवस्था का ज्ञान और आवश्यक तकनीकियाँ प्रशिक्षक बताता है.
२ मिनट में पतित होने वाले शायद दो घंटे का बिना पतन का सम्भोग न समझ पायेंगे. सम्भोग को मात्र भोग समझने वाले शायद इसकी शक्ति को न समझ पायेंगे. आप सीखने पर ही अनुभव कर पाएंगे की यह वह शक्ति है जो व्यक्ति को श्रृष्टि की उसकी ही क्षमता से उसे श्रृष्टिकर्ता तक से मिला सकती है.
ऐसे में संभोगरत युगल जब पतित होने से खुद रोकते हुए साधनारत रहता है तो ऊर्जा तो पतित नहीं होती किन्तु ऊर्जा उत्पादन होते रहने से ऊर्जा बढती और संघनित होती जाती है. यह ऊर्जा तीव्र क्रिया के साथ एकत्र हो ओज में बदलती है और भौतिक अस्तित्व से उपर उठते हुए सूक्ष्म शरीर के चक्र मूलाधार को और उद्वेलित करती जाती है. इससे वहां तरंगो का उत्पादन बढ़ता जाता है. वहां की शक्तियाँ क्रियाशील होने लगती हैं.
कुछ समय बाद यह उद्वेलन इतना बढ़ता है की मूलाधार में सुप्त पड़ी कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होने लगती है. समय क्रम में ऊर्जा प्रवाह बढने पर कुंडलिनी जागकर तीव्रता से क्रिया करती है और उपर की ओर उठती है.|यहाँ मूलाधार का जागरण होता है और सभी सुप्त शक्तियाँ जाग्रत होने से यहाँ से सिद्धियों का क्रम शुरू होता है.
जब ऊर्जा उत्पादन सतत बना रहता है और साधक युगल नियंत्रित हो साधनारत रहते हैं तो कुंडलिनी स्वाधिष्ठान और क्रमशः अन्य चक्रों का जागरण करते हुए सहस्त्रार तक पहुँचती है और यहाँ शिव -शक्ति सायुज्य होता है.
समाधि की अवस्था तो बीच में ही आ जाती है. सहस्त्रार से निर्बिक्ल्प समाधि और ब्रह्माण्ड यात्रा शुरू हो जाती है. अंततः व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है.
समाधि तो मुक्ति अवस्था पाते ही लग जाती है और मुक्ति तथा मोक्ष में बड़ा अंतर है. यह सब सुनने में तो आसान लग रहा किन्तु यह दुनियां का सबसे कठिन काम है क्योंकि मनुष्य की प्रकृति ही पतित होने की होती है और वह पूरा जीवन अपनी ऊर्जा फेंकता ही रहता है.
खुद की प्रवृत्ति बदल ऊर्जा संरक्षित कर उर्ध्वमुखी करना संसार का सबसे कठिन काम है : वह भी तब जब वह ऊर्जा सामान्य से लाखों गुना बढ़ जाए रोकते के क्रम में. इसलिए शुरू में इस योग से कुंडलिनी साधना थोड़ी कठिन लगती है क्योंकि यह उस शक्ति को उपर उठाती है जो हमेशा नीचे की ओर ही जाना चाहती है. इसीलिए दक्ष प्रशिक्षक जरूरी होता है.